'दि डैनिश गर्ल' : एक पुरुष के भीतर 'कैद' स्त्री की कहानी

विक्टोरियन 'नैतिकता' के युग में बुक शेल्फ में औरतों और पुरुषों की लिखी किताब एक साथ नहीं रखी जाती थी. कल्पना कीजिये कि इस काल में अगर किसी पुरुष को यह पता चले कि उसके पुरुष शरीर में एक खूबसूरत औरत' कैद' है तो उसकी त्रासदी का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं हैं.
 
लेकिन शायद इस 'पुरुष' की पत्नी की त्रासदी का अंदाजा लगाना काफी मुश्किल होगा जो अपने इस कलाकार पति को बेइंतहा प्यार करती है, लेकिन इसके बावजूद इस 'पुरुष' के अंदर कैद स्त्री को बाहर लाने में अपने पति की भरपूर मदद भी करती है. जबकि उसे पता है कि इस स्त्री के बाहर आते ही,उसका प्यारा पति हमेशा के लिए गुम हो जाने वाला है. 

इसी जटिल लेकिन सच्ची कहानी पर आधारित है फिल्म- 'दि डैनिश गर्ल' [The Danish Girl]. आइनर वेगनर [Einar Wegener] और उसकी पत्नी गेर्दा [Gerda] दोनों कलाकार है. आइनर 'लैंडस्केप' बनाने में माहिर है तो गेर्दा 'पोर्ट्रेट' बनाने में.
 
एक दिन गेर्दा की मॉडल किसी कारण लेट हो जाती है, गेर्दा यूं ही लापरवाही से आइनर को मॉडल बनने को कहती है. गेर्दा आइनर को स्त्री मेकअप और स्त्री परिधान से सजा देती है. उसका यह पोर्ट्रेट कला जगत में हिट हो जाता है. और उसके बाद तो यह सिलसिला ही शुरू हो जाता है. 

लेकिन इसी बीच आइनर का यह अहसास गहरा होता जाता है कि, उसके अंदर कोई खूबसूरत स्त्री कैद है. वह पोर्ट्रेट बनाने के समय के अलावा भी गेर्दा से नज़र बचा कर स्त्री परिधान पहनता है और मेकअप करता है. 

अपने अंदर की इस स्त्री को उसने नाम दिया है-'लिली'. एक बेहद खूबसूरत और महत्वपूर्ण दृश्य में वह आदमकद शीशे के सामने अपने नग्न शरीर का मुआयना करता है. इस दृश्य में मानों वह लिली के रूप में मुक्त होने की कोशिश कर रहा हो.
 
गेर्दा को इस बात का अहसास तब होता है, जब वह देखती है कि आइनर छुपा कर अपने पुरुष परिधान के नीच स्त्रियों वाले अन्दरूनी कपड़े पहन रहा है. इसके बाद शुरू होता है डाक्टरों और मनोचिकित्सकों का सिलसिला. 

19 वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरूआत में आइनर जैसे लोगों को डॉक्टर या मनोचिकित्सक भी पागल या असामान्य ही मानते थे. एक डॉक्टर उसे इलेक्ट्रिक शॉक देता है ताकी उसके अंदर की 'लिली' को मार दिया जाय. यह दिल दहला देने वाला दृश्य है. एक मनोचिकित्सक उसे पागलखाने में डालने का फैसला कर लेता है, जहाँ से आइनर बड़ी मुश्किल से भागता है. 

इस बीच आइनर और गेर्दा का आत्मसंघर्ष देखने लायक है. इंसान के रूप में दोनों को एक दूसरे की त्रासदी का अहसास है. लिहाजा वे दोस्त के रूप में और करीब आ जाते हैं. लेकिन गेर्दा अपने प्यारे पति को लगातार खोती जा रही है, दूसरी ओर आइनर अपनी लिली को अपनी ही कैद से आज़ाद करने की त्रासद यातना से गुज़र रहा है. ऐसे में दोनों का ही अभिनय बहुत जटिल है. दोनों को ही अनेक मनोभावों से एक साथ गुज़रना होता है और इसमे दोनों ने ही कमाल किया है. 

लेकिन गेर्दा (Alicia Vikander) का अभिनय भारी पड़ा है. जहाँ आइनर (Eddie Redmayne) पुरुष से स्त्री में संक्रमण के बेहद कठिन काम को करते हुए कुछ 'मैनेरिज्म' का सहारा लेने को मजबूर हो जाता है,वहीँ गेर्दा पति को खोने और दोस्त के रूप में पति से लिली को आज़ाद करने में मदद करने के बेहद कठिन अभिनय को बहुत ही सहजता से अंजाम देती हैं. 

फिल्म में आइनर और गेर्दा दोनों ही कलाकार हैं, इसलिए कला जगत की पूरी दुनिया इसके बैकग्राउंड में है. जहाँ अक्सर ही हमे कई खूबसूरत पेंटिंग्स देखने को मिल जाती हैं. सच तो यह है कि फिल्म का एक एक दृश्य किसी पेंटिंग्स सरीखा ही है. खासकर फिल्म के अंतिम कुछ दृश्य. 

यह फिल्म उस दौर में [2015] आयी, जब भारत सहित पूरी दुनिया में LGBTQ+ आन्दोलन अपनी पहचान बना रहा था. जेंडर के प्रति पुरानी सोच बदल रही थी. हालाँकि अभी भी समाज में इस बारे में जागरूकता का बेहद अभाव है. उधर दक्षिणपंथी राजनीति का उभार भी इसके सामने एक नयी चुनौती पेश कर रहा है.
 
लेकिन दुःख की बात यह है कि प्रगतिशील राजनीति में भी LGBTQ+ को लेकर थोड़ी हिचक है. LGBTQ+ के अधिकारों का समर्थन करने के बावजूद इन्हें कुल मिलाकर अप्राकृतिक मान लेने का चलन है. जिसके कारण इन्हें मुख्यधारा में खुलकर आने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. 

इस फिल्म के ठीक एक साल पहले 2014 में एक फिल्म आयी थी- 'Pride'. यह भी एक सत्य घटना पर आधारित थी. 1984 में ब्रिटेन के मशहूर खनन मजदूरों के आन्दोलन में LGBTQ+ का एक ग्रुप खनन मजदूरों के लिए चंदा जुटाकर उनकी मदद करना चाहता है, लेकिन मजदूर आन्दोलन का नेतृत्व उन्हें गंभीरता से नहीं लेता और उनका मजाक उड़ा कर उन्हें भगा देता है. 

बाद में  नेतृत्व के कुछ संवेदनशील मजदूरों के प्रयासों के कारण LGBTQ+ का यह ग्रुप मजदूर आन्दोलन से जुड़ता है और दुनिया बदलने में अपनी भूमिका निभाता है. अभी हाल ही में फिलीपींस की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस विषय पर एक शानदार और मानीखेज नारा दिया-'क्रांति का कोई जेंडर नहीं होता (Revolution has no gender).' 

बहुत पहले 1925 में सोवियत रूस के एक वैज्ञानिक ने जेंडर की तुलना इन्द्रधनुष से करते हुए लिखा था कि कोई भी व्यक्ति  अपने को इसमे कहीं भी देख सकता है. जिस तरह इन्द्रधनुष में कोई भी रंग 'अप्राकृतिक'नहीं है, उसी तरह किसी भी तरह का जेंडर झुकाव [Gender Orientation] अप्राकृतिक नहीं है. 

यह महत्वपूर्ण फिल्म 'अमेज़न प्राइम' पर है. 
इसके निर्देशक 'टाम हूपर' [Tom Hooper ] हैं.
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